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नवंबर 16, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सहजं कर्म कौन्तेय ......

शान्ति से क्रोध को मारों । नम्रता से अभिमान को जीतो । सरलता से माया का नाश करो । संतोष से लोभ को काबू में लो । अशुभ से नि वृत्ति और शुभ में प्रवृत्ती व्यवहार ये चारित्र्य है । तू देव था सतत आचारी देव सेवा
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ज्ञान की सीमा जैसा ज्ञानी गागर में सागर का पानी ज्ञान की पूर्णता की जो सीमा दिखाई देती है वह तो मृगजल सामान हैइसीका अंत तो पूर्ण परमात्मा रूप है.दोड़ते दोड़ते थक कर मृग का प्राण चला जाता है वैसा ही है ! यहाँ से जो सीमा दिखाई देती है वह तो वहा जाने के बाद भी दिखाई देंगी !!यही तो अद्भुत खूबी है.सवाल तो यह खड़ा होता है की दोड़कर प्राण त्यागे या खड़े खड़े आनंद पूर्ण जीवन का मजा ले !! हे मृग शान्ति से जी ! इसीलिए तो जिज्ञासा को भी आवेग में स्थान मिला है ! ! माला सांसो साँस की भगत जगत के बिच जो फेरे सो गुरुमुखी न फेरे सो नीच

शान्ति

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शान्ति... बर्षोसे इसके लिए आयोजन व्यवस्था किए जा रहा हूँ । प्रत्येक व्यवस्था के अंतमे विश्रांति ढूँढता हूँ ! मिली क्या ? न ही मिलेगी ।कारण की शान्ति को ढूँढने की प्रक्रिया ही अशांति है । शान्ति हमारे अन्दर ही पड़ी है ! ! वो जितनी है उतनी को जतन करने का है और और बधानेकी है । अशांत तो तेरे पास आतेही रहते है ! शान्ति को पाने के लिए मनुष्य अगणित प्रयासो करता रहता है.विज्ञानं तो जिज्ञासु शंकायुक्त जन को ज्ञान करवाने के लिए है ।शांति  और  भगवन का चक्कर अद्भुत है  !! मन  मुरख तू  कहा फिरत है हरी तो तेरे पास  !!! सवेरा  तो कोई और ही करता  है  जगाता है  कौन  ??  गहरी नींद में  जो खोया है उसको  !!!